1.संसार, जोडों और अवतारों से भरे स्वप्न की तरह जगने तक वास्तविक लगता है।

2.जब हमारी गलत धारणा सही हो जाती है, तो दुख भी समाप्त हो जाता है।



3. वास्तविकता को केवल एक विद्वान द्वारा नहीं, बल्कि समझ की आंख से अनुभव किया जा सकता है

4.दोस्त या दुश्मन, भाई या चचेरे भाई के संदर्भ में किसी को मत देखो; मित्रता या शत्रुता के विचारों में अपनी मानसिक ऊर्जा को न हटाएं। सभी जगह स्वयं की तलाश करना, सभी के प्रति व्यवहारिक और समान विचारधारा होना, सभी के साथ समान व्यवहार करना।

5. यह जानते हुए कि मैं शरीर से अलग हूं, मुझे शरीर की उपेक्षा करने की आवश्यकता नहीं है। यह एक वाहन है जिसे मैं दुनिया के साथ लेन-देन करने के लिए उपयोग करता हूं। यह वह मंदिर है, जिसके भीतर शुद्ध स्व का निवास है।

6. यह पता है कि मैं शरीर से अलग हूं, मुझे शरीर की अनदेखी करने की आवश्यकता नहीं है। यह एक वाहन है जिसे मैं दुनिया के साथ लेन-देन करने के लिए उपयोग करता हूं। यह वह मंदिर है, जिसके भीतर शुद्ध स्व का निवास है।

7. जब आपकी आखिरी सांस आती है, तो ग्रामर कुछ नहीं कर सकता है।

8. यह परम सत्य है ; लोग आपको उसी समय तक याद करते है जब तक आपकी सांसें चलती हैं। इन सांसों के रुकते ही आपके क़रीबी रिश्तेदार, दोस्त और यहां तक की पत्नी भी दूर चली जाती है।

9. वास्तविक रूप से मंदिर वही पहुंचता है जो धन्यवाद देने जाता हैं, मांगने नहीं।

10.  हमारी आत्मा एक राजा के समान होती है और हर व्यक्ति को यह ज्ञान होना चाहिए कि जो शरीर, इन्द्रियों, मन बुद्धि से बिल्कुल अलग होती है। आत्मा इन सबका साक्षी स्वरूप हैं।

11.तीर्थ करने के लिए किसी स्थान पर जाने की जरूरत नहीं है। सबसे अच्छा और बड़ा तीर्थ आपका अपना मन है, जिसे विशेष रूप से शुद्ध किया गया हो।

12. आत्मा की गति मोक्ष में हैं।

13. अज्ञानता के कारण ही आत्म ज्ञान सीमित प्रतीत होता है, लेकिन जब यह अज्ञानता मिट जाती है तब आत्मा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाता है, जैसे बादलों के हट जाने पर सूर्य दिखाई देता है।

14. जब मन में सत्य को जानने की तीब्र जिज्ञासा पैदा हो जाती है तब दुनिया की बाहरी चीज़े अर्थहीन लगने लगती हैं।

15. आंखो को दुनिया की चीज़ों कि ओर आकर्षित न होने देना और बाहरी ताकतों को खुद से दूर रखना ही आत्मसंयम है।

16.ब्रह्मा ही सत्य है और जगत मिथ्या (माया) है।

17. वास्तविक आनंद उन्हीं को मिलता है जो आनंद कि तलाश नहीं कर रहे होते हैं।

18. जिस तरह एक प्रज्वलित दीपक के चमकने के लिए दूसरे दीपक की जरुरत नहीं होती है। उसी तरह आत्मा जो खुद ज्ञान स्वरूप है उसे किसी और ज्ञान कि आवश्यकता नही होती है, अपने खुद के ज्ञान के लिए।

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